Chhuachhut chuachut hindi me
अस्पृश्यता / छुआछूत :
अस्पृश्यता का शाब्दिक अर्थ है – न छूना। इसे सामान्य भाषा में ‘छूआ-छूत’ की समस्या भी कहते हैं। अस्पृश्यता का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह के सभी लोगों के शरीर को सीधे छूने से बचना या रोकना। ये मान्यता है कि अस्पृश्य लोगों से छूने, यहाँ तक कि उनकी परछाई भी पड़ने से किसी जाति/वर्ग/समुदाय/कुल के लोग ‘अशुद्ध’ हो जाते हैं और अपनी शुद्धता वापस पाने के लिये उन्हें पवित्र गंगा-जल से स्नान करना पड़ता है।
अस्पृश्यता या छुआछूत समाज के अंदर व्याप्त वह बुराई है, जो समाज के एक जाति वर्ग विशेष द्वारा जबरदस्ती अपने आस-पास के रहने वाले अन्य लोगों पर थोपा जाता है, और लोग अनंत काल से इस बीमारी से ग्रसित है, लेकिन अब लोगों के प्रति यह जागरूकता फैलाना पड़ेगा कि यह प्रजातंत्र नहीं है, यह भारतीय संविधान के लोकतंत्र का हिस्सा है और संविधान में इस बीमारी के लिए कोई जगह नहीं है |
इन सभी के बाद भी आज भी हमारे आसपास ऐसे चीजें देखने और सुनने में लगातार मिलती रहती है, क्या समाज में किसी भी चीज पर पहला अधिकार सिर्फ किसी जाति/वर्ग विशेष का होना आवश्यक है, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जैसे लोकतंत्र में सभी के लिए समान स्थान है तो वह भी उसका पालन करें और चलिए व्यक्तिगत स्थान पर जिनको जो करना है करें परंतु किसी सामाजिक / धार्मिक स्थल पर तो समानता के भाव से सम्मिलित हो उन कार्य में अपना महत्व मनवाने की प्रयास से वंचित रहना एक सुदृढ़ समाज की निशानी है |
और अगर कोई व्यक्ति अपने आप को किसी विशेष जाति/धर्म/कुल/गोत्र या कोई अन्य कारणों से अपने को श्रेष्ठ मानता है तो फिर सिर्फ सामाजिक/धार्मिक स्थल तक ही क्यों सीमित रखता है, उसे तो फिर उन सभी लोगों जिन्हें वह सामाजिक/धार्मिक स्थल पर अछूत समझता है, तो उनका छुआ हुआ हवा/पानी/अग्नि/मृदा आदि इस सभी चीजों का भी उपयोग नहीं करना चाहिए, फिर चाहे उसके लिए प्राण ही क्यों न त्यागना पड़े, और अगर नहीं तो फिर अपने सहुलियत के हिसाब से क्यों किसी पर किसी वर्ग विशेष की माला जपना | यहीं लोग जो अपने आप को श्रेष्ठ मानते हैं, किसी शादी/बरात में जाएगे तो भरपेट खाएंगे और समेटकर भी लाते हैं, तब इनके श्रेष्ठता की बत्ती कहां गुल हो जाती है •
अस्पृश्यता / छुआछूत का इतिहास :
अस्पृश्यता मानव-समाज के लिए एक भीषण कलंक है। अस्पृश्यता की उत्पत्ति और उसकी ऐतिहासिकता पर अब भी बहस होती है। भीमराव आम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता कम से कम 400 ई. से है आज संसार के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो अथवा आर्थिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अस्पृश्यता के दर्शन किए जा सकते हैं।
अस्पृश्यता का प्रमुख कारण :
समाजशास्त्रियों के अनुसार अस्पृश्यता/छुआछूत की जननी अपने आप को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझना है, इसके प्रमुख तीन पड़ाव है –
1- प्र-जातिय भावना : अस्पृश्यता/छुआछूत की प्रमुख कारण यह है कि कुछ प्र-जातियां अपने आप को अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ मानती है और अन्य जातियों को हीनता के भाव से देखती है, और सामाजिक/धार्मिक स्थल पर अपने और अपने ही प्रजातियों के लिए उपलब्ध संसाधनों पर पहला अधिकार जताने का प्रयास करती है और यदि किसी के पास वह संसाधन न हो तो उसे तरह-तरह के मानसिक दवाव बनाकर ऐसी व्यवस्था करने के लिए विवश करते हैं |
2- धार्मिक भावना : धर्म में पवित्रता पर विशेष जोर दिया गया है जिससे निम्न व्यावसायिक व्यक्ति को हीन भावना की दृष्टि से देखता है, जिससे अस्पृश्यता / छुआछूत की भावना उत्पन्न होती है
3- सामाजिक : प्र-जातिक एवं धार्मिक भावना के अतिरिक्त समाज में व्याप्त कुरीतियों/रूढ़िवादी के द्वारा एक सशक्त समाज को तोडने का प्रयास किया जाता है, जिससे समाज में जाति/वर्ग/समुदाय के प्रति छुआछूत की भावना का विकास होता है |
अस्पृश्यता / छुआछूत निवारण के उपाय : अस्पृश्यता या छुआछूत एक गंभीर बीमारी है जिसका भारतीय संविधान में को स्थान नहीं है, अस्पृश्यता प्रथा को 1950 में समाप्त कर दिया गया था तथा अनुसूचित जातियों और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम ने 1955 में अस्पृश्यता प्रथा के चलन और प्रचार को दंडनीय बना दिया था। 1989 में अत्याचार निरोधक अधिनियम लागू किया गया। लेकिन इस सभी के वावजूद आज भी हमारे आसपास इस प्रकार की कुरीतियां व्याप्त है और इस सभी का जिम्मेदार कही न कही हम सभी लोग ही हैं जो बेमतलब से ही किसी जाति विशेष को उसके कर्मों को नजरंदाज करके और गोत्र/जाति पर ध्यान देकर उन्हें विशेष दर्जा देते हैं, हम कही न कही यह भूल जाते हैं कि जिस भारतभूमि पर हम रहते हैं वह अब राजतंत्र नही वरन लोकतंत्र पर चलता है, जहां धर्म प्रधान न होकर कर्म प्रधान है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति समाजिक समरसता की बातें करे तो उसे अधार्मिक/उत्दण्डी और नाना प्रकार के उपहास भरे शब्दों से संवोधित करके उसके आत्मविश्वास को तोड़ने का प्रयास करते हैं |